July 1, 2025

चहेतों को ठेका दिलाने नेताओं, अफसरों की लंबी कतार, ठेका पद्धति बना जी का जंजाल

लाखों आदिवासियों, वनवासियों का रोजगार छीन रहा वन विभाग

पायनियर संवाददाता रायपुर
वन विभाग के निर्माण कार्यों को ठेका पद्धति से करने के निर्णय से विभागीय कार्य बेहद पिछड़ गया है। विभाग के ज्यादातर काम अस्त व्यस्त पड़े है। आमतौर पर वन विभाग के वानिकी कार्य अक्टूबर माह से प्रारंभ हो जाता है और अप्रैल आते-आते खत्म हो जाते है। लेकिन इस वर्ष फरवरी खत्म होने को है और वन विभाग के निर्माण कार्यों की शुरूआत तक नहीं पाई है। पहले ज्यादातर विभागीय रूप से निर्माण तथा अन्य कार्यों को पूरा किया जाता था। जिसको फील्ड स्टाफ अपने तकनीकी और क्षेत्रीय पकड़ अनुसार पूरा कर लेते थे। इस वर्ष नेताओं और अधिकारियों ने बिना सोचे समझे सारे निर्माण कार्यों को पीडब्ल्यूडी और आरईएस के भांति ठेका से करने का निर्देश जारी कर दिया। अब इसके पीछे क्या मंशा है यह तो विभागीय अफसर और नेता ही जानेंगे। लेकिन विभाग के ज्यादातर निर्माण कार्य अब तक चालू नहीं हो सके है। ज्यादातर डीएफओ सिर्फ ठेका कराने और निरस्त करने में लगे हुए है। जिन बेरोजगार राजमिस्त्रियों और इंजीनियरों को काम देने के लिए यह योजना लाई गई है वो पीडब्ल्यूडी में रजिस्टर्ड तक नहीं है। उनके पास तकनीकी ज्ञान की समस्या भी है। ऐसे में किसी वनमण्डल के सैकड़ों काम के लिए गिने चुने लोग ही पहुंच रहे है। जो लोग निविदा में भाग ले भी रहे है वो कार्य के लिए 10 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक नीचे बोली लगा रहे है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन बेरोजगारों का तकनीकी ज्ञान किस स्तर का है। वन विभाग के प्रोजेक्ट सबसे कम दर वाले आरईएस रेट पर बनते है। इसके बावजूद लोग काम पाने के चक्कर में 50 प्रतिशत तक की कम बोली लगा रहे है जिसमें अच्छी गुणवत्ता से काम कर पाना संभव नहीं है। आलम यह है कि अधिकारियों को कार्य निरस्त करना पड़ रहा है। पुन: निविदा करने पर भी वही परिणाम सामने आ रहे है। छत्तीसगढ़ के लगभग सभी वनमण्डलों का कमोबेस यही हाल है। ठेका पद्धति में कुछ बड़े ठेकेदारों ने राजमिस्त्री का अपना सिंडिकेट बना लिया है। जो सभी वनमंडलों में जाकर निविदा में भाग ले रहे है। वन मंडलाधिकारी भी असमंजस में है कि कार्य किसे दिया जाए। तरह-तरह के ठेकेदार, नेता अपने चहेतों को ठेका दिलाने अधिकारियों पर दबाव बना रहे है। सरकार के मंशा अनुसार अगर ठेकेदारों और तकनीकी रूप से कमजोर बेरोजगार इंजीनियरों को कम दर पर काम देते है और संरचना टूटता है तो इसका जवाबदार आखिर कौन होगा? अंतत: दोषी होंगे वन विभाग के अधिकारी और कर्मचारी। इसलिए यह ठेका पद्धति अधिकारियों और वनवासियों के लिए सरदर्द साबित हो रहा है। सामान्यत: पीडब्ल्यूडी और आरईएस के कामों का स्वरूप बड़ा होता है। जिसको तकनीकी और आर्थिक रूप से सक्षम ठेकेदार पूरा करते है। कार्यों को पूरा करने में कई साल लग जाते हैं। पर वन विभाग के काम छोटे-छोटे राशि के होते है। जिसको दो तीन माह में विभागीय रूप से करने में सहोलियत होती है। इस ठेका पद्धति से सबसे अधिक मार खा रहा है तो वह है छत्तीसगढ़ शासन की महत्वाकांक्षी योजना नरवा। आपको बता दे कि अब तक नरवा के स्टॉपडेम, चेकडैम और तालाब चालू तक नहीं हो पाए है। कुछ माह बाद बरसात का मौसम आ जाएगा लेकिन अभी तक नरवा के सारे काम ठेका पद्धति के चक्कर में उलझ गए है।
ठेका पद्धति स्थानीय आदिवासियों का रोजगार छीन रहा
काम चालू ना हो पाने से स्थानीय आदिवासियों और लाखों वनवासियों को रोजगार भी नहीं मिल पा रहा है। ठेका में काम करने से ठेकेदार मशीन और बाहरी मजदूर से काम करवा रहे है। जिससे कारण स्थानीय ग्रामीणों में रोष व्याप्त हो रहा है। तो वही दूसरी तरफ बाहरी ठेकेदारों को काम मिलने से स्थानीय जनप्रतिनिधि भी नाराज हो रहे। पूर्व में विभागीय मद से काम करने पर विभाग के फील्ड स्टाफ ग्रामीणों और स्थानीय लोगों से चर्चा करके काम करवाते थे। पर अब चारों ओर ठेकेदारों का बोलबाला है। वे अपने मनमर्जी से मशीन और बाहरी मजदूरों से काम करवा रहे है। इससे स्थानीय आदिवासियों का शोषण हो रहा है। इतने सारे काम की गुणवत्ता जांचना भी विभाग के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। ठेका पद्धति के खिलाफ अंदर ही अंदर सभी अधिकारियों में नाराजगी की बात भी सामने आ रही है।

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